भारत में पुरुषों की मानसिक स्थिति एक खामोश त्रासदी बन चुकी है। जैसे-जैसे ज़िंदगी की सीढ़ियां चढ़ते हैं — रोटी-कपड़ा-मकान से लेकर पहचान, सम्मान और फिर प्यार-सुकून तक — उनके कंधों पर दबाव और अकेलापन भी बढ़ता जाता है।
बुनियादी ज़रूरतें पूरी, फिर भी बेचैनी क्यों?
आज का युवा पुरुष अपने जीवन की शुरुआत रोटी, कपड़ा और मकान के संघर्ष से करता है। लेकिन जब ये ज़रूरतें पूरी हो जाती हैं, तब अगला स्तर शुरू होता है — नौकरी, पहचान, प्रोमोशन और समाज में सम्मान पाने की दौड़। यही वह जगह है जहां मानसिक थकावट की शुरुआत होती है।
काम का दबाव: पहचान की कीमत
तस्वीरों के बीच के स्तर में दिखता है कि युवा काम के माहौल में लगातार प्रदर्शन देने की कोशिश में हैं। ब्रिटिश और भारतीय रिसर्च यह बताते हैं कि अधिकांश पुरुष अपने मानसिक तनाव की जड़ अपने काम को मानते हैं। लगातार 6-7 दिन काम करने वाले भारतीय पिता भी इस दबाव का हिस्सा हैं, जो खुद की सेहत को पीछे छोड़कर परिवार और करियर के बीच पिसते हैं।
रिश्तों का उलझाव: इकलौते सहारे का टूटना
जहां महिलाएं अपने दोस्तों और परिवार से भावनात्मक सहारा लेती हैं, वहीं पुरुष अकसर अपनी गर्लफ्रेंड को ही एकमात्र भावनात्मक सहारा मानते हैं। जब रिश्तों में दरार आती है, तो इसका असर उनके मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा होता है — और कई बार वह शराब या नशे में खुद को डुबो लेते हैं।
परिवार की उम्मीदें और समाज की परिभाषाएं
पुराने ख्यालों वाली सोच आज भी युवाओं पर हावी है — कि एक ‘अच्छा बेटा’ वही है जो परिवार की ज़िम्मेदारी उठाए, कमाए, शादी करे और “लायक” कहलाए। इस बोझ के साथ लड़कों को कभी रोने या खुलकर अपनी बात कहने की आज़ादी नहीं मिलती। बचपन से ही सिखाया जाता है कि “मर्द को दर्द नहीं होता”, जबकि असल में वह सबसे ज़्यादा दर्द छुपा रहा होता है।
समाधान की दिशा: भावनाएं भी ज़रूरी हैं
अब वक्त है पुरुषों को यह समझाने का कि मानसिक स्वास्थ्य कोई कमजोरी नहीं, बल्कि हिम्मत की निशानी है। व्यायाम, मेडिटेशन, दोस्ती, खुली बातचीत और डिजिटल थेरेपी आज के दौर के जरूरी टूल्स हैं। साथ ही, स्कूलों और घरों में मानसिक स्वास्थ्य की शिक्षा और इमोशनल इंटेलिजेंस को बढ़ावा देना ज़रूरी है।
नया मर्द: मजबूत वही जो खुलकर रो सके
तस्वीर की चोटी पर दिखता है वह पुरुष जो शांति, प्रेम और सच्ची खुशी तक पहुंच चुका है। लेकिन वहां पहुंचने के लिए जरूरी है कि हम समाज की टॉक्सिक मर्दानगी को तोड़ें और भावनात्मक अभिव्यक्ति को नई ताकत मानें। एक ऐसा समाज बनाएं जहां लड़कों को रोने की, डरने की और अपनी बात कहने की इजाज़त हो।
क्योंकि असली ताकत वह नहीं जो सब कुछ सह ले, बल्कि वह है जो समय पर मदद मांगे और खुद को समझे।